पर हाँ, अन्ना यही कह रहे है के मैं राजनीति मे आके अपनी छवि खराब नही कर सकता.
हम आज भी अन्ना की उतनी ही इज़्ज़त करते है जितनी आज से 1.5 साल पहले करते थे. और इस लेख को किसी भी और तरीके से ना लिया जाए.
लोकशाही की बात जब अन्ना के मुँह से पहली बार रामलीला मैदान मे 2011 के अगस्त मे सुनी तो लगा के हाँ यार, हमारी भी कुछ औकात है. वो कहते थे की जनता मालिक है और सरकार उसकी नौकर.
लोकशाही मे जो जनता कहती है उसे ही मानना पड़ता है. और फिर ये बात तो सभी से रूबरू है के एक समान समाज मे जैसा भी बहुमत कहता है, अगर वो सही है तो वैसा ही होना चाहिए. देश का एक अच्छा ख़ासा तबका चाहता है के अच्छे व्यक्तित्व वाले लोगों को राजनीति मे आना चाहिए. इसमे कोई बुरी बात भी नही है.
तो अगर जनता माँग कर रही है के अन्ना को राजनीतिक दल का गठन करना चाहिए, तो क्यूँ वो लोकशाही की दुहाई देने वाला बंदा अब लोकशाही का गला घोंट रहा है.
मौजूदा दौर मे हमारे पास जितने भी राजनीतिक दल है, उसमे हम मानते है के की अच्छे नेता भी है, परंतु बहुमत खराब लोगों का है जो सिर्फ़ मैं के बारे मे ही सोचते है, जबकि जन प्रतिनिधि होने के नाते उन्हे ज़रूरत है हम के बारे मे सोचने की. पिछले आम चुनाव मे 60 % से भी कम मतदान हुआ था. जबकि देश बनाने मे 100 फीसदी लोगों की ज़रूरत होती है. अब वो 40 फीसद से बात करो तो उनका कहना होता है के "यार क्या फ़ायदा, ये आए चाहे वो, दोनो ने हमे ही नचाना है, हम तो फूटबाल के खेल मे उस गेंद की तरह है जो चाहे कितना भी उपर उछल जाए, मारा उसे पैरो से ही जाना है."
भारत बनाम भ्रष्टाचार (इंडिया अगेन्स्ट करप्षन) ने जब आम जनता से पूछा के उन्हे एक राजनीतिक दल बनाना चाहिए या नही तो ७६ फीसदी लोगों ने कहा हाँ. उनकी हाँ का मतलब ये नही हो सकता के भाई तुम राजनीतिक पार्टी बनाओ और हम तुम्हे मतदान ना करके तुम्हे हरा देंगे.
ऐसे मे अन्ना अगर एक राजनीतिक दल बना कर उस जनता को ऐक विकल्प दे देंगे तो हो सकता है के शायद पिछले 65 सालो से लोगो के दिमाग़ पर हमले करके उन्हे जो बताया गया है के इस देश मे किसी का कुछ नही हो सकता, उनके मन भी मानने को तैयार हो जाए के हाँ शायद कुछ तो हो सकता है.
अब अन्ना इस ज़िद पर है के मैं अपनी छवि खराब नही कर सकता. तो यहाँ पे अन्ना से एक सवाल पूछने को दिल चाहता है के क्या अन्ना अपनी इक्लोते की छवि के पीछे सारे देश की छवि को खराब होने दे सकते है? क्या वो इतने निर्दय हो गये है?
क्या उन्हे गलिओ मे फटे कपड़े पहने वो छोटे छोटे बच्चे नही दिखते जो रोटी के एक टुकड़े के लिए ना जाने कितनो के आगे हाथ फैलाते है! क्या केवल जनलोकपाल आ जाने से ये सब ठीक हो जाएगा? क्या उन्हे मा-बाप की लाडली माने जाने वाली बेटिओ के हालत नही दिखते, जो अभिशाप मान कर जन्म लेने से पहले या बाद मे मार दी जाती है? क्या केवल जनलोकपाल आ जाने से ये सब ठीक हो जाएगा? क्या उन्हे बम धमाको मे मारे गये उस नौजवान लड़के के माँ-बाप के आँसू नही दिखते, जो रह रह कर अपनी किस्मत को कोन्स्ते है? क्या केवल जनलोकपाल आ जाने से ये सब ठीक हो जाएगा? क्या उन्हे फंदे से लटकते और कुएँ मे कूदते वो किसान नही दिखते, जो केवल इस लिए जान देने पर मजबूर हो गये की सरकार ने उन्हे उनका मेहनताना नही दिया? क्या केवल जनलोकपाल आ जाने से ये सब ठीक हो जाएगा? क्या उन्हे सरहद पर खड़े उस जवान की आँखो की चमक नही दिखती, जो सोचती है के देश को बाहर वालो से मैं रक्षा कर रहा हूँ और अंदर वालो से अन्ना? क्या केवल जनलोकपाल आ जाने से ये सब ठीक हो जाएगा? हाँ शायद हो भी जाए, आज से २५ साल बाद. मतलब भारत की एक और नस्ल अभी इस भ्रष्टाचार को सहेगी. अन्ना ने अपनी रहें जुड़ा कर ली है पर उनके आदर्श युवा दिलो मे खून की तरह हमेशा दौड़ते रहेंगे. अन्ना के वह ५ विचार जो किसी भी जीवन को सफल बनाने का माद्दा रखते है:
१. शुद्ध आचार
२. शुद्ध विचार
३. अपमान सहने की शक्ति.
४. निष्कलंक जीवन
५. त्याग
अब सवाल ये बनता है के क्या अन्ना को कभी अपनी इस सबसे बड़ी ग़लती का एहसास होगा?
पर उससे भी बड़ा सवाल है के क्या इतिहास कभी अन्ना को माफ़ कर पाएगा?
अरविंद के लिए ४ पंक्तियाँ कहता हूँ के:
राजनीति नही अब रण होगा
देश पर मर मिटने का प्रण होगा
वो लड़ाई होगी की काले अंग्रेज याद रखेंगे
प्रमाण इसका धरती का कण-कण होगा
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