कल दिन मे जंतर-मंतर गया था अपना संदेश “बलात्कार करने
वालों का, लिंग काट दो सालो का” अपने सीने पर
चिपका के।
वहाँ पर स्मिता नाम की एक महिला मिली और उन्होने कहा की ये
सज़ा ठीक नहीं है, उनके तर्क थे, इससे जो बलात्कारी होगा
वो कोई भी सबूत न छोड़ने के लिए लड़की को जान से मार देगा, ये
सज़ा और अपराध को बढ़ावा देगी, ऐसा करना अमानवीय होगा, वगैरह।
ये संवाद एक तरफा ही रहा। वो किसी महिला संगठन की अधिकारी
थी शायद इसलिए उन्हे सिर्फ बताने की आदत ही थी और वो मेरी बात सुन नहीं पाई।
मैं उनसे कहना चाहता था कि ऐसा कौन सा अपराधी है जो अपराध
करने के बाद अपनी पीछे सबूत छोडना चाहता है (आप दामिनी दी के दोस्त कि गवाही को मान सकते
है जिसमे उन्होने कहा कि उन छक्को ने उन्हे बस से कुचलने कि कोशिश की), तो ये कहना तो गलत है कि इस सज़ा से अपराध बढ़ेगा,
अगर ऐसा है तो वो तो सज़ा को फांसी मे बदलने से भी हो सकता है, उम्र कैद करने से भी हो सकता है।
और जहां तक बात है अमानवीय होने की तो मेरा मानना है कि
अमानवीय तो बलात्कार करना भी है। उस लड़की को जिसका बलात्कार हुआ होता है उसके साथ सारा
समाज, हम लोग कैसा व्यवहार करते है ये किसी को बताने कि ज़रूरत नहीं है, उसे अछूत समझा जाता है, लोग सीधी नज़र से कभी नहीं
देखते। ऐसे मे न्याय का अर्थ क्या होगा, सिर्फ किसी को सात
साल की कैद दे देना ताकि वो फिर से अपनी मर्दांगी का जोश समाज को दिखा सके। उसके
साथ कुछ ऐसा होना चाहिए जिससे उसे दिन मे 4-5 बार तो याद आए उसने क्या किया है।
जिस दिन ये सज़ा अमल मे आई और 2 लोगो को दी गयी, सिर्फ
2 लोगो को, तो पूरे भारत वर्ष मे ऐसी घटनाओं को अंजाम देने
से पहले किसी मंत्री का कपूत भी सोचेगा।
ये मेरा मानना है, आप अपनी राय बताए।
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आपका धन्यवाद